मंगलवार, 24 मई 2011

सैयद मेहबूब अली हॉकी की दीवानगी अभी बाकी


65वें औबेदुल्ला गोल्ड कप का दूसरा दिन। हॉकी की नर्सरी में पहले दिन की अपेक्षा दर्शकों की कमी। वहीं मुख्य पैवेलियन के पास कुर्सी पर बैठकर मैच को तल्लीनता से देख रहे पूर्व लेफ्ट इन सैयद मेहबूब अली। नर्सरी का एक ऐसा नाम जो लंबे समय तक हॉकी से जुड़ा रहा। खपौटों से शुरू हुई हॉकी और फिर अनवरत ही चलती रही। उम्र के 73वें पड़ाव में भी हॉकी की दीवानगी बरकरार। चर्चा करने पर पता चला कि आजादी के पहले से हॉकी खेलना शुरू किया। कई बार औबेदुल्ला खां गोल्ड कप में भी भागीदार रहे। मेहबूब साहब कहते हैं, हमारे जमाने में हॉकी तो हुआ करती थी, लेकिन इतनी सुविधाएं नहीं थी। आज क्या नहीं है, लेकिन हॉकी भी महंगी हो गई है। पहले खपौटों से खेली। फिर 12 रुपए में हॉकी मिली। पांच रुपए की वह गेंद आज भी याद आती है। सरकार और इस खेल के रखवालों को चाहिए कि हॉकी का सामान सस्ता करें। तब तो गरीब खिलाड़ी भी मैदान में उतर पाएगा। मेहबूब ने कहा कि एक समय था, जब हमने दुनिया को हॉकी सिखाई। अजलन शाह का प्रदर्शन देखकर लगता है कि हमें दूसरों से सीखने की जरुरत है। आॅस्ट्रेलिया ने पाकिस्तान को पीटा और फिर पाक ने हमें हराया। न्यूजीलैंड जैसी टीम से हम 7-2 से हारे। देखकर ही दिल बैठ जाता है। सच कहूं तो भोपाल ही नहीं देश में भी टूर्नामेंट और मैदानों की कमी हो गई है। 1964 में भारतीय टीम के कैंप में रहे, लेकिन कारणवश चयन नहीं हुआ। मेरे कुछ साथी पाकिस्तान चले गए जो 1948 में भारत से और 1952 में पाकिस्तान से खेले। मुझे भी कहा गया, लेकिन मुझे मेरा मुल्क पसंद था, भारत। मैंने जो कुछ सीखा और पाया अपने देश से ही। मैं आज भी उतना ही खुश हूं, लेकिन हॉकी का गिरता स्तर विचलित कर देता है। नए खिलाड़ियों से मेरी गुजारिश है कि वे गलत चीजों को न अपनाएं और खेल पर ध्यान दें।

बुधवार, 12 जनवरी 2011

श्रद्धांजलि





हॉकी की नर्सरी का एक और फूल मुरझा गया। अपने ताकतवर शॉट और कलात्मक हॉकी के लिए मशहूर नूरुद्दीन का रविवार रात को 75 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। वे भोपाल हॉकी के जेंटिल कहे जाते थे।
अतीत के गलियारे में देखे तो हॉकी की बगिया में उस समय सिर्फ यही खेल गली-कूचों में खेला जाता था। छह वर्ष की उम्र में ही नूरुद्दीन साहब ने हॉकी को थाम लिया और सिकंदरिया मैदान पर इसका ककहरा सीखा। 1947 में क्लब हॉकी से जुड़े और निरंतर खेलते रहे। उन्हें भोपाल हॉकी का जेंटिल क्यों कहा जाता है, इसके पीछे भी एक रोचक वाकया था। अपने समय में टाटा की टीम में आरएस जेंटिल हुआ करते थे। उनका नाम था रणधीर सिंह। वे हॉकी के बेहतरीन खिलाड़ियों में शुमार हुआ करते थे। कहा जाता था कि उनकी स्टिक पर गेंद आ जाए तो फिर गोल निश्चित है। एक बार भोपाल खेलने आई टाटा की टीम की ओर से खेलते हुए वे गोल नहीं कर पाए। भोपाल की टीम से खेल रहे नूरुद्दीन साहब ने गोल दागा और अपने खेल से सभी को प्रभावित किया। नूरुद्दीन साहब के खेल से आरएस जेंटिल इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उनके पास आकर कहा कि असली जेंटिल तो आप है। बस तभी से नूरुद्दीन साहब का नाम ‘भोपाल हॉकी का जेंटिल’ पड़ गया।
यही नहीं नूरुद्दीन साहब की चार पीढ़ियां हॉकी से जुड़ी रही। उनके नाती भी हॉकी खेल रहे हैं। नूरुद्दीन के बेटे एजाजुद्दीन ने भी हॉकी खेली और उनके दो बेटे नजमुद्दीन और एफाजुद्दीन भी हॉकी खेले।
नूरुद्दीन साहब कहा करते थे कि हमारे जमाने में हॉकी बड़ा साफ-सुथरा खेल हुआ करता था। तब दर्शक संजीदा कमेंट्स किया करते थे, जिससे खिलाड़ी बेहतर करने के लिए प्रेरित हुआ करता था। आज सब कुछ बदल गया है। हमारी कलात्मक हॉकी को विदेशियों ने पॉवर गेम बना दिया।
भोपाल हॉकी का यह वटवृक्ष तो अब मुरझा गया है, लेकिन उनकी यादें और उनका ‘जेंटिल’ होने का रुतबा हमेशा याद किया जाएगा।

मंगलवार, 11 जनवरी 2011

आओ सुशील गुरु हो जाओ शुरू...

गुरुवार (छह जनवरी) शाम का सूरज ढलने को है। तात्या टोपे राज्य खेल परिसर के मार्शल आर्ट्स भवन में खिलाड़ियों का हुजूम अपने सितारे का इंतजार कर रहा है। कुछ ही देर में भारत का यह सितारा सभी के सामने था। विश्व चैंपियन पहलवान सुशील कुमार। अब गुरु सुशील।
चूंकि मप्र राज्य कुश्ती अकादमी के कोच और तकनीकी सलाहकार भी बने है। सुशील ने अपनी नई भूमिका का आगाज भी दमदार तरीके से किया। छोटे से सम्मान समारोह के बाद ही सुशील ने मंच से ही दांव पेंच सिखाने का शंखनाद कर दिया। माइक पर उसी हरियाणवी टोन में बोले ‘तैयार हो जाओ’। सुशील भी उतरे और बमुश्किल पांच मिनट में पहलवानों वाली किट में रिंग पर नजर आए। अकादमी के पुरुष और महिला पहलवानों के बीच रिंग पर सुशील थे। गुरु का काम शुरू हो गया। बोले, चलो थोड़ा वार्मअप हो जाए। वार्म अप बड़ा गजब का था। देखने वाले सुशील की चीते सी फूर्ति देखकर अचंभित थे। ऐसे ही सुशील विश्व चैंपियन नहीं है। वह जानते हैं सेकेंड के सौंवें हिस्से में पदक फिसल सकता है। दो मिनट बाद सुशील ने पहला दांव बताया। ऐसे कमर में हाथ डालो और यूं टंगड़ी अंटी लगाकर चित कर दो। सुशील ने कहा, समझ आया, जिसे समझ नहीं आया फिर पूछ लो...।  फिर बताया और पांच-पांच बार अभ्यास के लिए सभी को भिड़ा दिया। सुशील कोई आराम नहीं कर रहे थे, अपने साथी के साथ तकनीक पर पकड़ बना रहे थे। गुरु सुशील के प्रशिक्षण का सिलसिला चलते ही रहा। फिर विरोधी को चारो खाने चित करने की नई तकनीक बताई। सुशील बोले, देखा...। किस-किस की समझ आया? हाथ खड़े करो। कुछ ने किए, कुछ समझ नहीं पाए। गुरु ने पुकारा, आओ फिर समझाता हूं। दोबारा दांव को समझाया। अब फिर पांच-पांच बार अभ्यास में जुट गए पहलवान। खिलाड़ियों के चेहरे पर इस प्रशिक्षण का ओज स्पष्ट देखा जा सकता था। बड़े खुश थे कि विश्व चैंपियन से दांव सीखने को मिल रहे हैं।
सुशील ने एक पहलवान को बुलाया। तुम करोगे। जी...। फिर उसकी ढीली डेÑस देखकर बोले ये ढीली क्यों है? उसने कहा दूसरे की पहनी है। गुरुजी बोले कोई बात नहीं, फिट होना चाहिए। फिर उसे एक खिलाड़ी के साथ भिड़ाकर  बताया अगला दांव। लगभग 45 मिनट के इस प्रशिक्षण से सुशील कुमार तरोताजा हुए, वहीं अकादमी के युवा पहलवानों के चेहरे पर किसी चैंपियन से कम चमक नहीं थी।